वो धीरे - धीरे पंजों से,
पैरों पर चलने लगी,
उसकी ज़िन्दगी की कहानी,
कुछ इस तरह से आगे बढ़ने लगी।
पहले स्कूल जाती थी,
अब वो कॉलेज जाने लगी,
वो कुछ लोगों को भी,
अब अपना मानने लगी।
फिर समझदार वो थोड़ी और हुई,
और किसी रोज़ कुछ रिश्ते की बात हुई,
वो थोड़ी इतराई और शरमाई,
फिर बात विवाह पे, उसके आयी।
तैयारियां भी कुछ ऐसे होने लगी,
वो खुश तो थी, पर मन ही मन रोने लगी।
ये सोचकर कि कुछ दिनों बाद...
अपने दूसरे घर में जाना था उसे,
वो फिर से अपनी मां की गोदी में सोने लगी।
जयमाला हाथ में था उसके,
अंगूठी भी बड़ी प्यारी थी,
दुल्हन बनके आयी जब वो,
लगा जैसे खुद चांद ने...
अपनी सुन्दरता हारी थी।
सिंदूर माथे पर सज गया,
सातवां फेरा भी पूरा हो गया,
अब रस्म रुलाने की आयी,
अब बात विदाई की आयी।
और साथ में सबकी आंखें भी,
आंसुओं से भर आयी।
पर ना रोने की इस चुनौती में,
अश्कों का बहना जायस था...
क्योंकि ये रस्म कुछ दुखदाई सी थी,
यहां बात बेटी की विदाई की थी।
लाख आंसुओं को रोक कर,
कुछ आंसू उसके पापा ने भी बहाए थे,
और कुमकुम से सिंदूर तक,
हजारों रस्मो को निभाने वाले,
बाबुल वो कहलाए थे।
आख़िरी तक मां ने मेरे सिर के,
पल्लू को संभाला था,
हां याद है जब मां ने मेरे लिए,
अपना पर्स खंगाला था।
मुझे पंजों से पैरों तक भी,
मेरी मां ने ही संभाला था,
मेरी मां ने ही संभाला था।
Penned by
Priya Dwivedi
Noida, UP, India
पैरों पर चलने लगी,
उसकी ज़िन्दगी की कहानी,
कुछ इस तरह से आगे बढ़ने लगी।
पहले स्कूल जाती थी,
अब वो कॉलेज जाने लगी,
वो कुछ लोगों को भी,
अब अपना मानने लगी।
फिर समझदार वो थोड़ी और हुई,
और किसी रोज़ कुछ रिश्ते की बात हुई,
वो थोड़ी इतराई और शरमाई,
फिर बात विवाह पे, उसके आयी।
तैयारियां भी कुछ ऐसे होने लगी,
वो खुश तो थी, पर मन ही मन रोने लगी।
ये सोचकर कि कुछ दिनों बाद...
अपने दूसरे घर में जाना था उसे,
वो फिर से अपनी मां की गोदी में सोने लगी।
जयमाला हाथ में था उसके,
अंगूठी भी बड़ी प्यारी थी,
दुल्हन बनके आयी जब वो,
लगा जैसे खुद चांद ने...
अपनी सुन्दरता हारी थी।
सिंदूर माथे पर सज गया,
सातवां फेरा भी पूरा हो गया,
अब रस्म रुलाने की आयी,
अब बात विदाई की आयी।
और साथ में सबकी आंखें भी,
आंसुओं से भर आयी।
पर ना रोने की इस चुनौती में,
अश्कों का बहना जायस था...
क्योंकि ये रस्म कुछ दुखदाई सी थी,
यहां बात बेटी की विदाई की थी।
लाख आंसुओं को रोक कर,
कुछ आंसू उसके पापा ने भी बहाए थे,
और कुमकुम से सिंदूर तक,
हजारों रस्मो को निभाने वाले,
बाबुल वो कहलाए थे।
आख़िरी तक मां ने मेरे सिर के,
पल्लू को संभाला था,
हां याद है जब मां ने मेरे लिए,
अपना पर्स खंगाला था।
मुझे पंजों से पैरों तक भी,
मेरी मां ने ही संभाला था,
मेरी मां ने ही संभाला था।
Penned by
Priya Dwivedi
Noida, UP, India
Wonderful poetry! here
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