Skip to main content

रूह का बंधन by Mohit Sah

तू जाग रहा रातों को अक्सर, माना प्रेम को पाना था
पर क्या पूछा तुने है खुद से, क्या तू प्रेम दिवाना था?
हाँ मान लिया जज्बात तेरे थे प्रेम प्रतिज्ञा में डूबे,
पर क्या उन जज्बातों की नींव, सच्चाई का ज़माना था?
खुश है ना तु मान गई वो, तुझको अपनाने को
कर तैयारी देर नही अब, तुझको उसे भूलने को
बस कुछ दिन इस प्रेम की अग्नि तुझको खूब जलाएगी
फिर यूं हवस के शक्ल में प्रेम, खुद से ही रूठ जाएगी
ना जाने संसार में कान्हा तेरा क्यों अवतरण हुआ?
प्रेम सिखाने आया था न, लगता है न विफल हुआ
जब रुह ने बंधन तोड़ दिया तब दो जिस्मों का मिलन हुआ
एक रूह तो बाकी थी न उसमें जिसने उस फूल का सृजन किया
जब रूह ने बंधन तोड़ दिया तब दो जिस्मों का मिलन हुआ

हार गई है प्रेम तुम्हारी, तेरे हवस के चक्कर में
टूट रहा है हर वह प्रेमी, तेरे छल के शक्कर में
पर मानो छल तो बस अब, तेरे फितरत का हिस्सा है
प्रेम बेचता गली - गली तु, अथक पुराना किस्सा है
अब भी क्या अंतरमन तेरा, तुझको सही बताता है?
प्रेम पुजारी प्रेम बेचता, शर्म ना तुझको आता है
ना जाने क्यों, अब भी तुझको ना भूल अपना स्मरण हुआ
जब रुह ने बंधन तोड़ दिया तब दो जिस्मों का मिलन हुआ
एक रूह तो बाकी थी न उसमें जिसने उस फूल का सृजन किया
‌जब रूह ने बंधन तोड़ दिया तब दो जिस्मों का मिलन हु

Penned by
Mohit Sah
Bhadrakali, Hooghly, India


 

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

Sarhad by Mandvi Mishra

Sarhad by Mandvi Mishra

Koi To Apna Raha Hota by Priya Dwivedi