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जीना भूल गया by Sabka Suraj

ज़िंदगी इतनी ज्यादा बुरी तो न थी,
जो मैं जीना भी भूल गया।
माना गमों –ए-दहशत की उम्र चल रही थी,
क्या हुआ जो मैं रोना भी भूल गया।
माना वीरान रास्तों की डगर थी,
क्या हुआ जो मैं चलना भी भूल गया ।
माना अकेलापन था दर्दनाक बड़ा,
क्या हुआ जो मैं तन्हा रहना भी भूल गया ।
माना समस्याओं का सैलाब था यहाँ,
क्या हुआ जो मैं जूझना भी भूल गया ।
माना था अंधेरा घनघोर हर तरफ यहाँ,
क्या हुआ जो अपने अन्तर्मन की रोशनी भी भूल गया ।
माना दर्द –ए –सितम हर इंसान दे रहा था यहाँ,
क्या हुआ जो अपने अंदर के इंसान को भी भूल गया ।
माना वक्त –ए-कमबख्त खराब था मेरा,
क्या हुआ जो मैं सब्र ए वक्त भी भूल गया ।
ज़िंदगी इतनी ज्यादा बुरी तो न थी,
जो मैं जीना भी भूल गया

Penned by
Sabka Suraj (सबका सूरज)

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